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बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2675
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-1 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

अध्याय - 2

सिन्धु घाटी एवं जोगीमारा

(Indus Valley and Jogimara)

 

प्रश्न- सिन्धु घाटी के विषय में आप क्या जानते हैं? सिन्धु कला पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

अथवा
सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताओं की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' किसे कहते हैं? इसका समय काल भी बताइए। इसे अन्य किस नाम से जानते हैं?
2. सिन्धु घाटी की खोज पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
3. हड़प्पा युग के वास्तु व नगर-विन्यास कला पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
4. हड़प्पा व मोहनजोदड़ो से किस प्रकार की पाषाण की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं?
5. मृण्मूर्तियाँ किससे बनी हुई हैं तथा यह कितने प्रकार की हैं?
6. सैन्धव कला में मुद्राओं अथवा मुहरों का क्या स्थान है?
7. सिन्धु घाटी सभ्यता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
8. सिन्धु घाटी से प्राप्त अवशेषों के बारे में लिखिए।

उत्तर -

सिन्धु घाटी की कला भारतीय कला के इतिहास में एक चामत्कारिक अध्याय है। सिन्धु घाटी की कला का जन्म स्थान भारत ही रहा है, इसलिए यह सर्वथा स्वदेशी ही है। सिन्धु कला का सौन्दर्य, आकर्षण तथा अनुभूति सिन्धु निवासियों की मौलिक रचना रही है, जिसके कारण सिन्धु कला अपने अस्तित्व की गाथा स्वआलोकित हो कहती चली आयी है।

ईसा से प्राय: 2700 वर्ष पूर्व से लेकर 1700 वर्ष पूर्व के मध्य में सिन्धु नदी घाटी में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नामक दो प्रसिद्ध नगरों से हम अत्यन्त उन्नत और समृद्ध सभ्यता के ध्वन्सावशेष पाते हैं, जिसके कारण हम इस सभ्यता की समृद्धि और व्यापकता का अनुमान लगा सकते हैं। घाटी के इन दो बड़े नगरों तथा अन्य ठिकानों पर पली-बढ़ी सभ्यता को 'सिन्धु घाटी की सभ्यता' कहते हैं। यहाँ के भवन निर्माण में पकाई मिट्टी की ईंटों का भी प्रयोग हुआ है, जिसके कारण कुछ विद्वान इस सभ्यता को 'पकाई हुई मिट्टी की ईंटों की सभ्यता' भी कहते हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो दोनों परस्पर 640 किलोमीटर की दूरी पर बसे हुए थे और ये दोनों नगर एक ही सभ्यता के दो केन्द्र थे। यही कारण है कि पिगट महोदय ने इन दोनों नगरों को 'एक विस्तृत राज्य की प्रमुख राजधानियाँ कहा है। सिन्धु घाटी की सभ्यता एक अनोखे वातावरण में मानव जीवन की एक सम्पूर्ण कहानी का प्रतिनिधित्व करती है और आधुनिक भारतीय कला और संस्कृति के लिए आधार प्रस्तुत करती है।

सिन्धु सभ्यता की खोज - सिन्धु कला की सामग्री उन वस्तुओं के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है, जो मुख्यत: हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो बड़े नगरों के खण्डहरों से प्राप्त है। सिन्धु घाटी की सभ्यता की खोज करने की जिज्ञासा प्रथमतः डॉ० राखालदास बनर्जी को ही प्राप्त थी लेकिन इस सभ्यता के रहस्योद्घाटन का श्रेय सर जॉन मार्शल को प्राप्त है।

पुरातत्त्वविद् कनिंघम ने 1878 में हड़प्पा के टीले का पता लगाया था, लेकिन पुनः 1921 में श्री दयाराम साहनी ने हड़प्पा में जो खुदाई करवायी, उससे उसका प्रागैतिहासिक स्वरूप प्रकाश में आया। तदुपरान्त श्री माधव स्वरूप वत्स ने हड़प्पा में कई वर्षों तक उत्खनन कार्य किया, जिससे हड़प्पा के बारे में गहरी जानकारी मिलती है। 1946 में सर मार्टीमर ह्वीलर के निर्देशन में पुनः उत्खनन कार्य हुआ और इसमें पुरातात्त्विक महत्त्व की अनेक वस्तुएँ प्राप्त की गयीं। हड़प्पा की खुदाई से पता चलता है कि यह नगर लगभग पाँच किलोमीटर की परिधि में स्थित था। हड़प्पा के अवशेषों में दुर्ग, रक्षा - प्राचीर, निवास गृह, चबूतरे तथा अन्नागार महत्त्वपूर्ण हैं। हड़प्पा सम्प्रति पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के अन्तर्गत शाहीवाल जिले में स्थित है।

मोहनजोदड़ो नामक स्थल सिन्ध के लरकाना जिले में करांची से लगभग 460 किलोमीटर * दूर उत्तर दिशा की ओर अवस्थित है। मोहनजोदड़ो का शब्दिक अर्थ 'मृतकों का टीला' होता है। इस स्थल की खोज 1922 में श्री राखालदास बनर्जी ने की और इसकी खुदाई से सिन्धु घाटी की ताम्रप्रस्तरयुगीन सभ्यता का अस्तित्व प्रकाश में आया। पुनः श्री जॉन मार्शल ने मोहनजोदड़ो में उत्खनन कार्य कराया और इस प्रकार हड़प्पा में उत्खनन कार्य श्री माधवस्वरूप वत्स के द्वारा व मोहन जोदड़ों में श्री जॉन मार्शल द्वारा उत्खनन कार्य किया गया। अन्ततः इन दोनों के पुष्कल प्रयत्नों के फलस्वरूप ही इन दोनों नगरों तथा उपनगरों की समृद्ध सभ्यता का ज्ञान प्राप्त हो सका।

उपनगरीय सभ्यताओं के स्थल पंजाब, सिन्ध, राजस्थान तथा गुजरात हैं। पंजाब क्षेत्र में रोपड़ तथा सिन्ध क्षेत्र में सुत्कागेनडोर, बालाकोट, अल्लाहदीनो, कोटदीजी व राजस्थान प्रान्त में कालीबंगन और गुजरात क्षेत्र में लोथल, सुरकोटदा, धौलावीर, देसलपुर, कुन्तासी, रोजदी आदि सभी क्षेत्र मिलकर एक वृहद नगर संस्कृति के विस्तार का रहस्योद्घाटन करते हैं।

सैन्धव सभ्यता के अन्तर्गत हमें कला का सुविकसित स्वरूप देखने को मिलता है। इस सभ्यता के शासक तथा समृद्ध व्यापारी कला के प्रेमी थे तथा उन्होंने इसके विकास को अपना पर्याप्त संरक्षण और योगदान दिया। इस सभ्यता में हमें वास्तुकला, मूर्तिकला व चित्रकला तथा मृदखाण्डकला, आदि के पूर्ण रूप से विकसित होने के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इस सभ्यता के अनोखे व विस्मयकारी नमूनों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

वास्तु व नगर - विन्यास कला - सर्वप्रथम वास्तुकला का तात्त्विक दर्शन इसी हड़प्पा युग में होता है, जो निश्चय ही एक उत्कृष्ट नगर जीवन को उद्घाटित करती है। सुरक्षा प्राचीर के अन्तः भाग में नगर को इतने समुन्नत ढंग से बसाया गया था कि उसे देखकर आधुनिक नगर महापालिकाओं का स्मरण होता है। सम्पूर्ण नगर चतुष्महापथों से विभिन्न वर्गों में विभाजित था, राजमार्ग एक-दूसरे को समकोण पर काटते थे जिसके कारण नगर के विभिन्न खण्डों का निर्माण होता था। हड़प्पा का मुख्य राजमार्ग 33 फुट चौड़ा था तथा किसी भी सड़क के निर्माण में ईंटों का प्रयोग नहीं किया गया है। प्रत्येक सड़क और गली के मध्य एक नाली होती थी जो पक्की ईंटों से निर्मित होती थी। नालियों की सफाई के लिए स्थान-स्थान पर उसमें गड्ढे बनाकर ढक दिया जाता था जिससे दूषित जल का प्रवाह अवरुद्ध न हो और कूड़े की सफाई हो सके। इस विषय पर डॉ० वी० एस० अग्रवाल का कथन है कि, “हड़प्पा निवासी शारीरिक स्वास्थ्य पर जितना ध्यान रखते थे उतना ही नगर की स्वच्छता पर भी इनकी नागरिक चेतना अत्यन्त ही जाग्रत थी।”

मोहनजोदड़ों से 20 स्तम्भों पर स्थित एक विशाल भवन प्राप्त हुआ है जिसे पर्सी ब्राउन ने 'मार्केट हॉल' कहा है। डॉ० अग्रवाल का मत है कि, "यह कोई सभाभवन था जो राजनीतिक, धार्मिक एवं सार्वजनिक सभाओं के लिए प्रयुक्त होता था।" यह भवन 85 फुट वर्ग पर निर्मित है तथा चतुर्दिक मध्य में सोपान बने हैं।

हड़प्पा वास्तु विशारदों ने मोहनजोदड़ो में एक विशाल स्नानागार का निर्माण किया था। यह जलाशय 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा और 8 फुट गहरा है। जलकुण्ड का निर्माण चतुर्दिक तीन संयुक्त दीवारों से किया गया है। कुण्ड का तल पक्की ईंटों से निर्मित किया गया है। इसमें उतरने के लिए उत्तर तथा दक्षिण की ओर सोपान बने हुए हैं। इस महाजलकुण्ड को मार्शल ने तत्कालीन विश्व का एक 'आश्चर्यजनक निर्माण' बताया है। इस विशाल स्नानागार का प्रयोजन निश्चय ही किसी विस्तृत संस्कार विधि अथवा धार्मिक क्रिया से रहा होगा।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनों ही स्थल प्रमुख व्यापारिक केन्द्र के रूप में जाने जाते थे। यहाँ से अन्न सुरक्षित रखने हेतु विशाल धान्यागार प्राप्त हुए हैं। इनमें 27 कोष्ठागार पक्की ईंटों से बने हैं। अन्नागार में वायु, प्रकाश जाने के लिए भी स्थान बनाए गए थे। अन्नागार का सुदृढ़ आकार-प्रकार वायु आने-जाने की व्यवस्था व इसमें अन्न भरने की सुविधा आदि निःसन्देह उच्चकोटि की थी। विद्वानों का यह विचार है कि यह राजकीय भण्डारण था जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किया हुआ अनाज रखा जाता था।

सिन्धु घाटी की वास्तुकला महान उपलब्धियों का द्योतक है। इस सभ्यता का नगर विन्यास तथा निर्माण शैली अद्भुत है। राजमार्ग, प्रासाद, कोष्ठागार, सभाभवन, अन्नागार, स्नानागार तथा दुर्ग आदि की निर्माण विधि में तकनीकी गुणों का समावेश सर्वत्र दिखाई देता है। इस प्रकार यदि हड़प्पाकालीन वास्तुकला को भारतीय वास्तुकला की जन्मदात्री माना जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।

मूर्ति शिल्प - सैन्धव सभ्यता के अन्तर्गत मूर्ति शिल्प का सम्यक् विकास हुआ। यहाँ के नगरों की खुदाई में प्रस्तर, धातु तथा मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। प्रस्तर तथा धातु की मूर्तियाँ सीमित ही हैं, किन्तु कलात्मक दृष्टि से वे उच्चकोटि की हैं। पाषाण मूर्तियाँ इस प्रकार से हैं-

पाषाण मूर्तियाँ - प्रस्तर मूर्तियों में सर्वप्रथम मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी अथवा पुरोहित की मूर्ति का उल्लेख किया जा सकता है। यह मूर्ति सेलखड़ी प्रस्तर से निर्मित है, जिसकी ऊँचाई 19 सेमी० है। योगी की मूँछें नहीं हैं, किन्तु दाढ़ी विशेष रूप से सँवारी गई है। योगी के केश पीछे की ओर एक फीते से बाँधे गए हैं। मस्तक पर गोल अलंकरण है और यह बाएँ कन्धे को ढकते हुए त्रिफुलिया अलंकरण वाली शाल ओढ़े हुए है। योगी के नेत्र अर्धोन्मीलित हैं जिसके कारण यह मूर्ति अध्यात्म की ओर इंगित करती है। निचले होंठ भी मोटे हैं और योगी की दृष्टि नासाग्र पर टिकी हुई है तथा नाक का अग्र भाग खण्डित है। मस्तक पीछे की ओर ढलुआ तथा गोल है और मुँह की गोलाई बड़ी है। इस मूर्ति के केश विन्यास विशेष रूप से आकर्षक हैं। इस प्रकार की कुछ मूर्तियाँ मिस्र, किरीट तथा माइसने, मेसोपोटामिया आदि सभ्यताओं से भी प्राप्त होती हैं जिनका सम्बन्ध देवताओं से था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मोहनजोदड़ो की इस मूर्ति का अवश्य ही कोई धार्मिक महत्त्व होगा। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह मूर्ति पुजारी की है जो सैन्धव सभ्यता की धार्मिक महत्ता का सूचक है। ऐसा लगता है कि सैन्धव सभ्यता में योग विद्या का जो प्रचार था उसी का प्रतिनिधित्व इस मूर्ति के द्वारा होता है।

इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो से कुछ अन्य प्रस्तर मूर्तियाँ भी मिली हैं जिसमें एक श्वेत पाषाण का पुरुष मस्तक है जिसमें पहली मूर्ति (योगी) की तरह कारीगरी नहीं मिलती है। एक दूसरी पाषाण मूर्ति जो मोहनजोदड़ो से ही प्राप्त है, यह श्वेत पाषाण से निर्मित लगभग 10 इंच ऊँची एक संयुक्त पशुमूर्ति है जिसमें शरीर भेड़ का तथा मस्तक सूँड़दार हाथी का है। सम्भवतः इस मूर्ति का कोई धार्मिक महत्त्व रहा होगा।

हड़प्पा की पाषाण मूर्तियाँ मूर्तिकला के विकसित स्वरूप को परिचायक हैं तथा यहाँ की मूर्तिकला मोहनजोदड़ो से भी श्रेष्ठतर है। हड़प्पा की प्रस्तर मूर्तियों में दो सिररहित मानव मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दोनों ही मूर्तियों के पैर तथा मस्तक टूटे हुए हैं।

पहली मूर्ति लाल बलुए प्रस्तर से निर्मित है जो धड़ (शरीर का मध्य भाग) तक ही शेष है। मूर्ति नग्न अवस्था में है तथा हस्त, सिर, पाद खण्डित हैं। इस मूर्ति के हस्त, पाद एवं सिर पृथक रूप से जोड़े गए हैं। शरीर में स्थूल मांसपेशियाँ हैं। इस मूर्ति की उभरी नसें व मांसपेशियाँ शरीर की प्रौढ़ता को इंगित करती हैं। मूर्ति में चिकनापन एवं पूर्ण सौन्दर्य व्याप्त है। इस प्रतिमा को कुछ विद्वान कोई जैन मूर्ति मानते हैं। किन्तु डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसे महानन्द देवता की मूर्ति माना है।

हड़प्पा से प्राप्त दूसरी मूर्ति भूरे सलेटी प्रस्तर की है। इस मूर्ति के भी पैर खण्डित हैं। इस मूर्ति में भी हस्त, ग्रीवा, स्कन्ध एवं सिर को पृथक रूप से जोड़ा गया है। इसके टूटे अंगों को एकत्रित करने से उत्तम कोटि की मूर्ति का निर्माण होता है। इस मूर्ति का दाहिना पैर धरती पर स्थिर है तथा बायाँ पैर नृत्य की मुद्रा में ऊपर की ओर उठा हुआ है। कमर से ऊपर के शरीर का भाग बाएँ घूमा हुआ है और दोनों हस्त भी बाएँ फैले हैं। यह एक ललित नृत्य मुद्रा की मूर्ति है जो नारी सुलभ कोमलता से परिपूर्ण है। डॉ० अग्रवाल ने इस मूर्ति को अथर्ववेद में वर्णित महानग्नि देवी के रूप में माना है जो विश्व की प्रकृतिस्वरूपिणी शाश्वती स्त्री या मातृदेवी की सूचक है।

धातु मूर्तियाँ - पाषाण के अतिरिक्त सैन्धव कलाकारों ने धातुओं से भी नयनाभिराम मूर्तियों का निर्माण किया। धातुनिर्मित प्रतिमाओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय मोहनजोदड़ो से प्राप्त 4.5 सेमी लम्बी एक नर्तकी की कांस्य मूर्ति है। यह सुन्दर एवं भावयुक्त है। इसके पैरों का निचला भाग क्षतिग्रस्त है और दाहिना हाथ कट्यावलम्बित मुद्रा में है। वामहस्त में कन्धे से कलाई तक चूड़ियाँ बनी हैं जिसे डॉ० अग्रवाल ने कटकावलि कहा है। दाहिने हाथ में बाजुबन्द तथा कलाई में दो चूड़ियाँ हैं। मूर्ति के केश घुँघराले हैं जो पीछे की ओर जूड़े में बँधे हुए हैं। गले में छोटा-सा हार तथा कमर में मेखला है। नर्तकी के वाम पाद जो थोड़ा आगे बढ़े हुए हैं, संगीत की लय के साथ उठते हुए जान पड़ते हैं। अपनी मुद्रा की सरलता एवं स्वाभाविकता के कारण यह मूर्ति सबको आश्चर्यचकित करती है।

नर्तकी की मूर्ति के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो से ही काँसे की एक अन्य नर्तकी की मूर्ति भी मिली है लेकिन यह मूर्ति कलात्मक दृष्टि से उत्तम नहीं है। यहीं से ताँबे की दो अन्य मानव मूर्तियाँ भी मिली हैं— पहली कमर पर हाथ रखे हुए तथा दूसरी हाथ ऊपर उठाये हुए है।

मृण्मूर्तियाँ – सैन्धव सभ्यता की ये मृण्मूर्तियाँ लाल रंग की ठोस पकाई हुई मिट्टी से निर्मित की गयी हैं और इन पर लाल मिट्टी का पोत और कहीं-कहीं चटक रंग भी हैं। ये मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं - एक मनुष्यों की, जिनमें स्त्री पुरुष दोनों की ही मूर्तियाँ हैं, दूसरी पशुओं की।

मोहनजोदड़ो से जो पुरुष मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें लम्बी नाक, साफ ठोढ़ी, लम्बी कटावदार आँखें, चिपकाया हुआ मुख और पीछे की ओर जाता हुआ ढलुआ माथा आदि प्राप्त होता है। कुछ मूर्तियों को छोड़कर बाकी सभी मूर्तियाँ नग्न हैं। पुरुष मूर्तियों को श्रृंगयुक्त दिखाया गया है। इनके साधारण गठन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इन मूर्तियों को बनाने वाले कारीगर ने इनमें कोई विशेष रुचि नहीं ली थी।

मृण्मयी मूर्तियों में नारी मूर्तियाँ अपेक्षाकृत आकर्षक व प्रभावोत्पादक हैं। ये विभिन्न आभूषणों से लदी हुई हैं और इनके मस्तक पर पंखे के सदृश्य फैला हुआ आभरण, कानों में गोलाकार कुण्डल, कण्ठहार, छाती पर कई लड़ियों वाला हार, कटि पर मेखला तथा भुजाओं में बाजुबन्द दर्शाये गये हैं। इनकी कमर से घुटनों तक लम्बा परिधान है और निचला भाग नग्न है। इनकी आँखें, स्तन, आभूषण आदि अलग से चिपकाये गये हैं। कुछ मूर्तियों की माँग में लाल रंग भरा गया है जिससे विद्वानों ने इन नारी मूर्तियों को मातादेवी की मूर्तियाँ बताया है, जो सैन्धव धर्म की सर्वप्रमुख देवी थीं। कुछ मूर्तियों की गोद में शिशु को भी दिखाया गया है जिससे उनका मातृत्व सूचित होता है। मातादेवी के अतिरिक्त कुछ सामान्य नारी मूर्तियाँ भी मिलती हैं जिन्हें आटा गूंधते या रोटी लिए हुए दिखाया गया है। नारी मूर्तियों की संख्या से स्पष्ट होता है कि सैन्धव लोगों के धार्मिक जीवन में मातृ-पूजन का विशेष महत्त्व था और ये मूर्तियाँ देवी के कल्याणकारिणी स्वरूप की सूचक हैं।

मानव मूर्तियों से कहीं अधिक संख्या में पशुओं की मृण्मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। ये मूर्तियाँ कला की दृष्टि से उत्तम मानी जा सकती हैं। इनमें कूबड़दार वृषभ विशेष रूप से पाये गये हैं। अन्य पशुओं में हाथी, गैंडा, बन्दर, सुअर, बाघ, भालू, खरगोश, भैंसा आदि की मूर्तियाँ अधिक संख्या में मिली हैं। इसके साथ ही साथ विभिन्न पक्षियों जैसे—मोर, कबूतर, तोता, चील, गौरैया, मुर्गा, उलूक आदि की भी मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा से मीन, कछुआ तथा नक्र की मृण्मूर्तियाँ मिलती हैं। सैन्धव स्थलों से प्राप्त बहुसंख्यक मृण्मूर्तियों में तीन-चौथाई मृण्मूर्तियाँ पशुओं की ही हैं। इनमें वृषभ की आकृतियाँ अत्यधिक सौन्दर्यपूर्ण एवं आकर्षक हैं।

मुद्राएँ - सैन्धव कला के अन्तर्गत मुद्राओं अथवा मुहरों का विशिष्ट स्थान है जिनमें हमें रिलीफ स्थापत्य के दर्शन होते हैं और ये इस संस्कृति के निश्चित चिह्न हैं। सिन्धु घाटी से 1200 से अधिक मुहरें प्राप्त हुई हैं जो सेलखड़ी पत्थर से निर्मित हैं। इसके अतिरिक्त काँचली मिट्टी, चर्ट, गोमेद, मिट्टी आदि की बनी मुहरें भी हैं। अधिकांश मुहरें वर्गाकार या चौकोर हैं लेकिन कुछ गोलाकार व बेलनाकार भी हैं। मुहरों के पीछे छेद कर एक घुण्डी लगायी जाती थी जिसमें धागा डालकर काम में लाया जाता था। मुहरें सामान्यतः 2.8 x 2. 8 सेमी. आकार की हैं, जो मोटाई में करीब 1. इंच की हैं। ये कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट हैं तथा विश्व की महान कलाकृतियों में अपना स्थान रखती हैं। मुहरों पर वृषभ (छोटे सींगों वाला नटुआ बैल) का अंकन काफी लोकप्रिय था। एक मुहर पर चिह्नित वृषभ की आकृति अत्यन्त प्रशंसनीय है जिसमें उसे घूँसा मारने की आक्रामक मुद्रा में अंकित किया गया है। एक अन्य मुहर में तीन व्याघ्रों के शरीर संयुक्त हैं। पशुपति शिव की एक मुहर मोहनजोदड़ो से मिली है। इसमें त्रिमुखी शिव को एक चौकी पर पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है तथा कुछ मुहरों पर स्वास्तिक, पीपल वृक्ष आदि उत्कीर्ण हैं।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो से कुछ ताम्र मुद्राएँ भी मिली हैं जिन्हें विद्वानों ने ताबीज की संज्ञा दी है। इनको सिक्कों की भाँति प्रयोग में लाया जाता था। मोहनजोदड़ो से मिले एक मुद्रा छाप के अग्रभाग में छः मानव आकृतियाँ एक पंक्ति में बनी हैं तथा नीचे की ओर हाथ में हंसिया लिए एक झुकी हुई आकृति है। उसके सामने पीपल के वृक्ष के नीचे एक बकरा है। चित्र से ऐसा प्रतीत होता है कि देवी को प्रसन्न करने हेतु बकरे की बलि दिए जाने का अंकन है। कुछ मुहरों पर उकेरित रहस्यमयी चित्रलिपि भी है जो लगभग अपठित ही है। फिर भी भारत के कई विद्वज्जन इसे पढ़ने का दावा करते हैं।

सैन्धव सभ्यता के इन स्थलों से कलाकृतियों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के आभूषण भी मिले हैं। ये सोने, चाँदी, मिट्टी, पत्थर आदि के बने हैं जो जोहरियों की कला के विकसित होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। यहाँ से प्राप्त आभूषणों के मनकों पर ज्यामितीय अलंकरण उच्चकोटि के हैं। आभूषणों की सबसे बड़ी विशेषता सोने, चाँदी और रांगे से निर्मित मनके या गुरिया हैं जिनकी शोभा देखते ही बनती है। इस प्रकार के आभूषण मेसोपोटामिया, ईरान, सुमेरियन, मिस्र, बेबीलोनियन सभ्यताओं में भी पाए गए हैं। किन्तु सिन्धु सभ्यता के प्रत्येक कला क्षेत्र (वास्तु, शिल्प, चित्र, मृतका) में इन सभ्यताओं की चमक फीकी ही है। सर जॉन मार्शल का कथन है कि, “यहाँ साधारण नागरिक सुविधा और विलास का जिस मात्रा में उपयोग करता था, उसकी तुलना समकालीन सभ्य जगत के अन्य क्षेत्रों से सम्भव नहीं हो सकती है।

सैन्धव कला भारतीय कला के इतिहास में किसी प्रारम्भिक अवस्था को व्यक्त न करके पूर्ण विकसित अवस्था को व्यक्त करती है। निश्चित रूप से धर्म और भारतीय लिपि की तरह ही कला की परम्परा का मूल स्रोत सिन्धु सभ्यता को ही माना जाना चाहिए। स्टेला क्रमरिश ने कहा है कि, "जिस भारतीय कला ने प्रत्येक काल में अपनी अक्षुण्ण परम्परा को प्रतिष्ठित किया है, उसका स्रोत सिन्धु घाटी की कला से ही प्रवाहित होता है।"

इस उन्नत कलामय सभ्यता के समाप्त होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता। मार्शल, मैके आदि विद्वान इस सभ्यता का विनाश एक मात्र नदी की बाढ़ के कारण हुआ मानते हैं। पुराविद् बी० बी० लाल के अनुसार, “जलवायु परिवर्तन, प्रदूषित वातावरण तथा व्यापार में भारी गिरावट के कारण ही इस सभ्यता की समृद्धि समाप्त हो गयी और नगरीकरण का अन्त हो गया।" सभ्यता के विनाश के कारण जो भी रहे हों, लेकिन यह सभ्यता अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक रीति-रिवाज व अपनी उत्कृष्ट कला को आगे आने वाली पीढ़ी को सौंपकर स्वयं सदा-सदा के लिए अमर हो गयी।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- कला अध्ययन के स्रोतों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- प्रागैतिहासिक भारतीय चित्रकला की खोज का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  3. प्रश्न- भारतीय प्रागैतिहासिक चित्रकला के विषयों तथा तकनीक का वर्णन कीजिए।
  4. प्रश्न- भारतीय चित्रकला के साक्ष्य कहाँ से प्राप्त हुए हैं तथा वे किस प्रकार के हैं?
  5. प्रश्न- भीमबेटका क्या है? इसके भीतर किस प्रकार के चित्र देखने को मिलते हैं?
  6. प्रश्न- प्रागैतिहासिक काल किसे कहते हैं? इसे कितनी श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं?
  7. प्रश्न- प्रागैतिहासिक काल का वातावरण कैसा था?
  8. प्रश्न- सिन्धु घाटी के विषय में आप क्या जानते हैं? सिन्धु कला पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- सिन्धु घाटी में चित्रांकन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  10. प्रश्न- मोहनजोदड़ो - हड़प्पा की चित्रकला को संक्षेप में समझाइए।
  11. प्रश्न- सिन्धु घाटी सभ्यता की कला पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  12. प्रश्न- जोगीमारा की गुफा के चित्रों की विषयवस्तु तथा शैली का विवेचन कीजिए।
  13. प्रश्न- कार्ला गुफा के विषय में आप क्या जानते हैं? वर्णन कीजिए।.
  14. प्रश्न- भाजा गुफाओं पर प्रकाश डालिये।
  15. प्रश्न- नासिक गुफाओं का परिचय दीजिए।
  16. प्रश्न- अजन्ता की गुफाओं की खोज का संक्षिप्त इतिहास बताइए।
  17. प्रश्न- अजन्ता की गुफाओं के चित्रों के विषय एवं शैली का परिचय देते हुए नवीं और दसवीं गुफा के चित्रों का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- अजन्ता की गुहा सोलह के चित्रों का विश्लेषण कीजिए।
  19. प्रश्न- अजन्ता की गुहा सत्रह के चित्रों का विश्लेषण कीजिए।
  20. प्रश्न- अजन्ता गुहा के भित्ति चित्रों की विशेषताएँ लिखिए।
  21. प्रश्न- बाघ गुफाओं के प्रमुख चित्रों का परिचय दीजिए।
  22. प्रश्न- अजन्ता के भित्तिचित्रों के रंगों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  23. प्रश्न- अजन्ता में अंकित शिवि जातक पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- सिंघल अवदान के चित्र का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  25. प्रश्न- अजन्ता के चित्रण-विधान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  26. प्रश्न- अजन्ता की गुफा सं० 10 में अंकित षडूदन्त जातक का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  27. प्रश्न- सित्तन्नवासल गुफाचित्रों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  28. प्रश्न- बादामी की गुफाओं की चित्रण शैली की समीक्षा कीजिए।
  29. प्रश्न- सिगिरिया की गुफा के विषय में बताइये। इसकी चित्रण विधि, शैली एवं विशेषताएँ क्या थीं?
  30. प्रश्न- एलीफेण्टा अथवा घारापुरी गुफाओं की मूर्तिकला पर टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- एलोरा की गुहा का विभिन्न धर्मों से सम्बन्ध एवं काल निर्धारण की विवेचना कीजिए।
  32. प्रश्न- एलोरा के कैलाश मन्दिर पर टिप्पणी लिखिए।
  33. प्रश्न- एलोरा के भित्ति चित्रों का वर्णन कीजिए।
  34. प्रश्न- एलोरा के जैन गुहा मन्दिर के भित्ति चित्रों का विश्लेषण कीजिए।
  35. प्रश्न- मौर्य काल का परिचय दीजिए।
  36. प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
  37. प्रश्न- कुषाण काल में कलागत शैली पर प्रकाश डालिये।
  38. प्रश्न- गान्धार शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  39. प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
  40. प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
  41. प्रश्न- “गुप्तकालीन कला को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  42. प्रश्न- अजन्ता की खोज कब और किस प्रकार हुई? इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करिये।
  43. प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
  44. प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।

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